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दिल्ली सल्तनत में गुलाम वंश कौन है ~ कुतुबुद्दीन ऐबक 1206 ई से 1210 ई

Qutubuddin Aibak

गुलाम वंश कौन है : पूरी दुनिया में गुलाम प्रथा प्राचीन काल से ही लागू हो गई थी। गुलाम प्रथा का मतलब होता है , युद्ध में हारने वाले कैदी या बंदियों को जीतने वाले गुलाम बना लेते थे और उनमें से प्रतिभावान तथा योग्य व्यक्तियों को सेना में भर्ती कर लेते थे और उन्हें शासन का भार सौंप दिया करते थे।

युद्ध के कैदियों के अलावा गुलामी के बाजार भी लगते थे और इन बाजारों से अमीर लोग गुलामी को खरीद कर उन्हें अपना सेवक बना लेते थे । वह गुलाम  बड़े स्वामिभक्त तथा कार्यकुशल प्राय: कुलीन वंश के होते थे।  कुछ गुलाम तो इतने स्वामी भक्त होते हैं कि उनके मालिक उनको अपने बेटे से भी ज्यादा प्यार करते थे, ऐसा बहुत बार इतिहास में देखने को मिला है।

इसका एक सबसे बड़ा उदाहरण है दिल्ली सल्तनत में गुलाम वंश का आना । यह जिसको आप यह भी कह सकते हैं कि दिल्ली सल्तनत का संस्थापक था कुतुबुद्दीन ऐबक, एक गुलाम ही था और उसके अंदर अपने स्वामी की स्वामी भक्ति इतनी ज्यादा थी कि उन्होंने सल्तनत पर बैठने के बाद भी अपनी पदवी सुल्तान की नहीं रखी थी, उन्होंने सिर्फ मलिक और सिपहलाकार की ही रखी थी ।

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गुलाम वंश कौन है 1206 ई. से 1290 ई.



दिल्ली सल्तनत के संस्थापक वैसे तो Qutubuddin Aibak  है को ही माना जाता है लेकिन सवाल यह है कि गुलाम वंश कौन है और इनको गुलाम वंश क्यों कहा जाता है। गुलाम वंश में जितने भी तेजस्वी शासक थे वह सारे ही गुलाम थे जैसे Qutubuddin Aibak, इल्तुतमिश, बलबन इसी वजह से इसको गुलाम वंश कहा जाता है। दिल्ली सल्तनत के शासको को गुलाम वंश कहना कुछ इतिहासकार इसलिए भी उचित नहीं समझते हैं क्योंकि इन तीनों तुर्क शासको का जन्म स्वतंत्र माता-पिता से हुआ था ।

इसलिए उन्हें प्रारंभिक तुर्क शासक व ममलुक शासक कहना अधिक उपयुक्त ज्यादा समझते हैं । इतिहासकार अजीज अहमद ने इन शासको को दिल्ली के आरंभिक तुर्क शासक का नाम दिया है। ममलुक शब्द का अर्थ होता है, स्वतंत्र माता-पिता से उत्पन्न किया हुआ दास । ममलुक नाम इतिहासकार हबीबुल्ला ने दिया है । कुतुबुद्दीन ऐबक, इल्तुतमिश एवं बलबन में इल्तुतमिश एवं बलबन ‘इलवारी तुर्क’ थे ।अब इन तीनों गुलाम वंश कौन है के बारे में डिटेल से जान लेना आवश्यक है।


कुतुबुद्दीन ऐबक 1206 ई से 1210 ई तक दिल्ली सल्तनत

Qutubuddin Aibak



Qutubuddin Aibak नामक एक तुर्क जनजाति का था । ऐबक एक तुर्की शब्द है जिसका हिंदी में अर्थ होता है ‘चंद्रमा का देवता’ । कुतुबुद्दीन ऐबक का जन्म तुर्किस्तान में हुआ था । बचपन में ही वह अपने परिवार से बढ़ गया और उसे एक व्यापारी द्वारा निशापुर के बाजार में ले जाया गया, जहां काजी फखरुद्दीन अब्दुल अज़ीज़ कुफी (जो इमाम अबू हनीफा के वंशज थे) खरीद लिया था । काजी फखरुद्दीन ने अपने पुत्र की तरह ऐबक की बचपन से ही परवरिश की तथा उसके लिए धनुर्विद्या और घूरसवारी की सेवाएं भी उपलब्ध कराई थी ।

कुतुबुद्दीन ऐबक बचपन से ही प्रतिभा का धनी था, मानो ऐसी प्रतिभा लेकर वह पैदा ही हुए थे।  बहुत जल्द ही वह धनुर्विद्या और घुड़सवारी में माहिर हो गया और अपनी इन्हीं कलाओं से उसने कुशलता प्राप्त कर ली थी। कुतुबुद्दीन ऐबक बचपन में ही सुरीली आवाज में कुरान पढ़ना सीख लिया था, इसलिए वह कुरान खां (कुरान का पाठ करने वाले) के नाम से प्रसिद्ध हो गया था। कुतुबुद्दीन ऐबक अपनी इस लाइफ में काफी खुश थे, क्योंकि जो उसे चाहिए था वह सब कुछ उसके पास था। लेकिन किस्मत को तो कुछ आगे और ही मंजूर था, कुछ समय बाद काजी फखरुद्दीन की मृत्यु हो गई, उनकी मृत्यु के बाद उसके पुत्र ने कुतुबुद्दीन ऐबक को एक व्यापारी के हाथों बेच दिया।

ऐबक काजी फखरुद्दीन का एक गुलाम वंश कौन है था, और उन्होंने कुतुबुद्दीन को वह सब कुछ दिया, जैसे अपने बेटों को दिया था, इसी वजह से उसके बेटे उसे ईस्ञा (जलस) करते थे, इसी वजह से उन्होंने अपने पिता की मृत्यु के बाद गुलामों के बाजार की मंडी में एक व्यापारी के हाथों कुतुबुद्दीन को बेच दिया था। यहीं से आगे अब शुरू होती है कुतुबुद्दीन ऐबक की दूसरी लाइफ और इस लाइफ में कुतुबुद्दीन ऐबक एक सुल्तान के पद तक पहुंच जाते हैं ।

जिस व्यापारी ने कुतुबुद्दीन को खरीदा, वह उसे बेचने के लिए गजनी के गुलाम बाजार में ले गया, इत्तेफाकन उसी दिन ही गुलाम खरीदने के लिए मोहम्मद गौरी बाजार आया था, और उन्होंने देखते ही कुतुबुद्दीन ऐबक को खरीद लिया । और अब यहीं से शुरुआत हुआ था दिल्ली के सिंहासन का रास्ता Qutubuddin Aibak के लिए ।

कुतुबुद्दीन ऐबक ने अपनी ईमानदारी, बुद्धिमानी, और अटूट स्वामीभक्ति के बल पर मोहम्मद गौरी का कुछ ही दिन में विश्वास प्राप्त कर लिया।  मोहम्मद गौरी ने भी उसके समस्त प्रशासनीय गुण से प्रभावित होकर उसे अमीर–ए –आखूर का पद नियुक्त किया था जो उसे समय एक महत्वपूर्ण पद होता था ।

इस पद पर रहते हुए ऐबक ने गोरी की गौर,बनियान, और गजनी, के युद्ध में सुल्तान मोहम्मद गौरी की खूब सेवा की । इसके बाद तो ऐबक ने और भी ज्यादा कमाल कर दिखाया था मोहम्मद गोरी को सन 1191 ई. में तराइन के पहले युद्ध में पृथ्वीराज चौहान से मिली करारी हार के बाद उसको भारत ले गया।  1192 ई . में दूसरे तराइन के युद्ध में पृथ्वीराज चौहान के युद्ध में शामिल किया कुतुबुद्दीन की एक सलाह इतनी कम आई जिसने युद्ध का पाशा ही पलट दिया।

कुतबुद्दीन की सलाह उसमें उन्होंने चार अलग-अलग टुकड़ियों बनाई थी जिनमें एक टुकड़ी का नेतृत्व कुतुबुद्दीन ऐबक ने किया इस टुकड़ी का काम यह था कि यह दल सबसे लास्ट मे हमला करेगी।  कुतुबुद्दीन ऐबक के टुकड़ी का हमला भी इतना खतरनाक था कि पृथ्वीराज सिंह चौहान इन हमने इन हमलों को सहन नहीं कर सके और युद्ध के क्षेत्र से भाग खड़े हुए । पृथ्वीराज सिंह चौहान को इस युद्ध में पराजय हुई और मोहम्मद गौरी की विजय इसी विजय से खुश होकर मोहम्मद गोरी ने कुतुबुद्दीन ऐबक को भारतीय प्रदेशों का सूबेदार नियुक्त कर दिया था ।



दिल्ली सल्तनत क्यों प्रसिद्ध है ~ Qutubuddin Aibak ~ गुलाम वंश कौन है


तराइन के दूसरे युद्ध के बाद और मोहम्मद गौरी के वापस लौट जाने के बाद, Qutubuddin Aibak को दिल्ली का सूबेदार बना दिया गया। दिल्ली के साथ-साथ वह कई भारतीय प्रदेशों का सूबेदार था, लेकिन सूबेदारी का काम वह दिल्ली में ही करता था । ज्यादातर इतिहासकार यही से ही दिल्ली सल्तनत की बुनियाद को मानते हैं।  मोहम्मद गौरी वापस चले जाने के बाद अजमेर और मेरठ के चौहान राजाओं ने अपने को स्वतंत्र घोषित कर लिया।  लेकिन वह यह भूल गए कि Qutubuddin Aibak में उच्च कोटि के स्वामीभक्त है वह अपने आप को स्वतंत्र करने के लिए नहीं, बल्कि गोरी के लिए ही युद्ध करेंगे सबसे पहले उन्होंने अजमेर के चौहानों के विद्रोह को सफलतापूर्वक दबाए फिर उसके बाद मेरठ के विद्रोह को भी दबाया साथ ही साथ मेवातियों के विद्रोह को भी दबा दिया था ।

उधर मोहम्मद गोरी को जब यह पता चला कि हिंदुस्तान में अपने आप को स्वतंत्र करने के लिए कई राजा विद्रोह कर रहे हैं तो उन्होंने तुरंत एक सेना का गठन किया और हिंदुस्तान के लिए प्रस्थान कर दिया लेकिन उसके आने से पहले ही Qutubuddin Aibak ने सारे विद्रोह को सफलतापूर्वक दबा दिया था ।

जब 1194 ईस्वी में मोहम्मद गोरी वापस दिल्ली आया तो उन्होंने देखा, कि Qutubuddin Aibak ने सारे विद्रोह को दबा दिया, तो उन्होंने कन्नौज के शासक जयचंद से युद्ध करने की सोची और उन्होंने जयचंद के पास एक सामंत को भेज और उसमें कहा कि वह गोरी साम्राज्य की अधीनता स्वीकार कर ले लेकिन जयचंद ने ऐसा करने से मना कर दिया और युद्ध करने की ठान ली गोरी ने भी युद्ध की पूरी तैयारी कर ली थी।

दोनों राजाओं की सेना कन्नौज और इटावा के बीच यमुना के किनारे चंदवार नामक स्थान पर पहुंच गई, और युद्ध के लिए तैयार हो गई थी। युद्ध जब शुरू हुआ तो जयचंद की सेना ने Mohammad Gauri, के सेना की इतनी बुरी हालत की इतनी बुरी हालत तो उसकी 1191 ई के पृथ्वीराज सिंह चौहान की सेना ने भी नहीं की थी। जयचंद की सेना इतनी बहादुरी से के साथ लड़ी की गोरी को युद्ध करते हुए ही पछतावा होने लगा था कि जयचंद से युद्ध करके उन्होंने बहुत बड़ी गलती कर दी है। इस युद्ध में भी Qutubuddin Aibak की सलाह मोहम्मद गौरी के बहुत कम आई गोरी ने एक और सलाह दी कि अगर जयचंद को हराना है तो उसकी आंख पर वार करना होगा।

जयचंद की आंख पर वार करने का एक मुख्य कारण यह था कि जयचंद राजा दाहिर की तरह अपने पूरे शरीर पर लोहे का एक भारी भरकम कवच रखता था, जिसको ना कोई तीर भेद सकता था ना कोई तलवार काट सकती थी,  इस वजह से उसको मारने के लिए उसकी आंख का ही निसाना लगाना ऐक मात्र ही तारिका था । जिस तरीके से राजा दाहिर को मारने के लिए मोहम्मद बिन कासिम की सेना ने इस्तेमाल किया था । इसमें एक बार फिर Mohammad Gauri, की सेवा को सफलता प्राप्त हुई।

Muslim Historians ने राजा जयचंद्र को पृथ्वीराज सिंह चौहान से भी ज्यादा ताकतवर माना है भले ही वह गोरी की सेना से प्रास्त हो गए । खुद मुहम्मद गोरी भी Raja Jayachandra को अपना सबसे बड़ा प्रतिदिनती मानते थे । मोहम्मद गोरी ने अपने जीवनी में लिखा कि राजा जयचंद्र जैसा उन्होंने कोई वीर अपनी लाइफ में देखा ही नहीं भले ही मुझे कई युद्ध में हर का सामना करना पड़ा लेकिन मुझे जयचंद जैसा योद्धा कोई नहीं मिला।

भारत का इतिहास में जयचंद को इतनी ज्यादा महत्व नहीं दी जाती है, जितनी पृथ्वीराज सिंह चौहान को दी जाती है हालांकि यहां दोनों के कंपैरिजन की बात नहीं चल रही है, यहां बात चल रही है दिल्ली सल्तनत में गुलाम वंश कौन थे कन्नौज के इस युद्ध में भी कुतुबुद्दीन ऐबक ने मोहम्मद गौरी की बहुत मदद की थी।



गुलाम वंश कौन है ~ गुलाम  कुतुबुद्दीन ऐबक का सिंहासनरोहण



Mohammad Gauri को कुतुबुद्दीन ऐबक इतना प्रिया था कि वह उसे अपना भारत में उत्तराधिकारी बनाना चाहता था।  यही मोहम्मद गौरी की हार्दिक इच्छा भी थी।  अपनी इसी इच्छा की पूर्ति के लिए उसे कुतुबुद्दीन ऐबक को भारत में अपना प्रतिनिधि नियुक्त कर ‘मलिक’ की उपाधि से विभूषित कर दिया था यह बात मोहम्मद गोरी के जीवित रहते तक की है । जब 1206 ई में मोहम्मद गौरी की मृत्यु का समाचार मिला तो लाहौर की जनता ने कुतुबुद्दीन ऐबक को राज सिंहासन धारण करने के लिए आमंत्रित किया, क्योंकि वह भी जानते थे कि कुतुबुद्दीन ऐबक को ही सबसे ज्यादा मोहम्मद गोरी पसंद करते हैं इसी वजह से उन्होंने कुतुबुद्दीन को ही न्योता दिया था ।

Qutubuddin Aibak ने भी राज्य शासन पर बैठने से पहले अपने चतुर्ता दिखाते हुए अपनी नीति में सुधार किया उसने अपनी पुत्री का विवाह इल्तुतमिश बहन का विवाह नसरुद्दीन कुबचा तथा स्वयं अपना विवाह ताजुद्दीन आलडेज की बहन से कर लिया।

Lahore से न्योता और मोहम्मद गौरी की मृत्यु के बाद कुतुबुद्दीन ऐबक ने अपना राज सिंहासन का राज्येभिषेक की 3 महीने बाद 24 जून सन 1206 ई को संपन्न कराया था।  इस अवसर पर भी उसने सुल्तान की उपाधि धारण ग्रहण नहीं की थी । ऐबक  जानता था के इसके तुरंत बाद उसे बहुत कठिनाइयों का सामना करना पड़ेगा, क्योंकि वहां पर कुबाचा और ताजुद्दीन आलडेज भी गड्डी के हकदार हैं । यह दोनों ही बहुत महत्वाकांक्षी और वीर योद्धा थे।



Qutubuddin Aibak के शासनकाल की प्रारंभिक समस्याएं।



कुतुबुद्दीन ऐबक को दिल्ली सल्तनत का स्वतंत्र सुल्तान बनने के बाद अनेकों कठिनाइयों का सामना करना पड़ा था जो निम्न इस प्रकार है ।
यह समस्याएं निम्न प्रकार थी –



1 अल्दोज तथा कुबाचा की समस्या



कुतुबुद्दीन ऐबक के सामने सबसे बड़ी समस्या अपने प्रतिद्वंथियों  का सामना करने की थी। कुबचा ने सिंधु और मुल्तान पर अपना स्वतंत्र राज्य स्थापित कर लिया था, इस वजह से Qutubuddin Aibak के लिए कुबचा एक समस्या थी । वहीं दूसरी तरफ आलथोज ने भी गजनी पर अधिकार कर लिया था आलथोज और कुबचा दोनों ही महत्वाकांक्षी व्यक्ति थे इस प्रकार आलथोज और कुबचा की महत्वकक्षाओं के कारण ऐबक का अस्तित्व ही खतरे में पड़ गया था ।



2, राजपूत का विद्रोह का सामना

चंदेल राजपुत

कुतुबुद्दीन ऐबक की दूसरी समस्या यह थी कि जिन राजपूत को मोहम्मद गोरी ने प्राप्त कर अपने अधीन बनाया था। मोहम्मद गौरी के मरने के बाद उन राजपूतों के मन में स्वतंत्रता की भावना जागृत हो गई थी, और वह अपनी खोई हुई स्वतंत्रता को वापस पाने को उत्सुक हो रहे थे ।

चंदेल राजपुतों ने अपनी राजधानी कालिंजर पर पुनः अधिकार कर लिया था और अपने स्वतंत्रता का झंडा लहरा दिया था, यह एक बड़ी समस्या थी Qutubuddin Aibak के लिए । वही गढ़वाल राजपुतों ने भी हरिश्चंद्र के नेतृत्व में  फर्रुखाबाद तथा बदायूं पर भी अपनी धाक फिर से स्थापित कर ली और उन्होंने भी अपनी स्वतंत्रता का झंडा लहरा दिया था ।

ग्वालियर प्रतिहार राजपूत जो मोहम्मद गौरी को वार्षिक कर दिया करते थे, मोहम्मद गौरी की मृत्यु के बाद उन्होंने भी अपनी स्वतंत्रता का झंडा ऊंचा कर दिया था । इस तरीके से कुतुबुद्दीन ऐबक को राजपूत के विद्रोह का भारी सामना करना पड़ा था।
यह समस्या तब फेस करने पड़ रही थी कुतुबुद्दीन ऐबक को जब वह कुबचा और अल्दोज की बड़ी समस्या से ग्रस्त था । अब आप खुद अंदाजा लगा सकते हैं कि जिसका अस्तित्व ही खतरे में पड़ा हो उसके सामने और बड़ी-बड़ी मुसीबतें भी उत्पन्न हो गई थी ।



3, बंगाल की समस्या


इख्तियारूद्दीन खिलजी के अधीन बंगाल का शासन था । जब तक इख्तियारूद्दीन था जब तक तो बंगाल का शासन ठीक-ठाक था, जैसे ही उसकी मृत्यु हुई तो बंगाल में भी अराजकता फैल गई । इस प्रकार शासक बनते ही ऐबक को बंगाल के खुजलीयों का भी सामना करना पड़ा ।


4, मध्य एशिया से मंगोल आक्रमण की आशंका


मध्य एशिया के आक्रमण से कुतुबुद्दीन ऐबक को सबसे अधिक भयभीत था, क्योंकि उसे समय खुद मंगल के संस्थापक चंगेज खान का शासन था ।  अब आप खुद अंदाजा लगा सकते हैं कि एक तो चंगेज खान के नाम से ही दुनिया कांपने लगती थी, और ऊपर से कुतुबुद्दीन ऐबक को तो पहले ही बहुत कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा था । और इसमें एक और समस्या यह भी थी की खुवारीजाम शाह की दृष्टि गजनी और दिल्ली पर लगी हुई थी, जिससे ऐबक का भयभीत होना स्वाभाविक ही था।


कुतुबुद्दीन ऐबक द्वारा समस्याओं का किया गया समाधान



कुतुबुद्दीन ऐबक एक क्षमता बढ़ सकता है अपनी सभी समस्याओं के समाधान के लिए उसमें पूर्ण क्षमता थी और उसने अपने धैर्य तथा विवेक से उसे पर विजय प्राप्त कर ली थी । कुतुबुद्दीन ने गुलामी का दौर भी देखा था और वह तो खुद भी लंबे समय तक एक गुलाम की भूमिका निभा चुका था इस वजह से उसमें सहन करने की क्षमता और अपनी समस्याओं से निपटने के बारे में अच्छी तरीके से मालूम भी था ।



नसीरुद्दीन कुबचा तथा अल्दोज से कुतुबुद्दीन का संघर्ष



Qutubuddin Aibak के दो प्रमुख पर्तिदिंधी थे, जिम एक का नाम था नसरुद्दीन कुबचा और दूसरे का नाम था ताजुद्दीन अल डोज।
कुबचा ऐबक का दामाद था इसलिए ऐबक का उसने विरोध नहीं किया था और ना ही ऐबक को किसी प्रकार का भी कष्ट पहुंचा था । मेने आपके ऊपर बात ही दिया था कि अपना राज्येभिसेक करने से पहले ही उसने यह राजनीति खेली थी।
वही अलदाज ने मोहम्मद गौरी की मृत्यु के बाद गजनी पर बलपूर्वक अधिकार जमा लिया था और वह दिल्ली को गजनी में मिलना चाहता था और इसके लिए उसने पंजाब पर आक्रमण भी किया यहां से आगे जाते हुए दिल्ली को भी जीतना चाहता था । Qutubuddin Aibak ने भी गजनी को भारतीय राज्य में मिलने के लिए गजनी पर आक्रमण करने की सूची बना ली ताकि अल्दोज दिल्ली पर अधिकार न करने दिया जाए ।

पंजाब में दोनों की सेवा आमने-सामने हुई इसमें कुतुबुद्दीन ऐबक को विजय प्राप्त हुई इस विजय के साथ आगे बढ़ते हुए कुतुबुद्दीन ऐबक गजनी जा पहुंचा और गजनी पर अपना अधिकार कर लिया । लेकिन 40 दिन के शासन के पश्चात उसे वहां से भागना पड़ा। इसका कारण यह था कि गजनी पर अधिकार करने के बाद ऐबक ने गजनी की जनता के साथ कठोर व्यवहार किया । और स्वयं भोग–विलास में मत हो गया । इस प्रकार गजनी के लोग ऐबक से असंतुष्ट हो गए और उन्होंने दोबारा फिर से ही अल्दोज को आमंत्रित किया और Qutubuddin Aibak के विरुद्ध विद्रोह कर दिया ।

ऐबक को गजनी छोड़कर लाहौर लौटना पड़ा। भले ही ऐबक गजनी पर अधिकार करने में असफल रहा हो परंतु उसने अल्दोज की महत्वाकांक्षा को तो दबा ही दिया था । उसके बाद अल्दोज का फिर कभी भी दिल्ली सल्तनत पर आक्रमण करने का कभी साहस ही नहीं हुआ था ।  यहीं पर  कुतुबुद्दीन ऐबक ने अपने प्रतिद्वंद्वियों की समस्या को भी खत्म कर दिया।


मध्य एशिया की राजनीति से अलगाव Qutubuddin Aibak 



Qutubuddin Aibak ने एक बहुत बड़ी बुद्धिमानी का कार्य यह किया कि उसने शिवम को मध्य एशिया की राजनीति से सर्वस्था अलग रखा अतः उसे ओर से आने वाली संभाव्य आपत्तियों से कुतुबुद्दीन ऐबक बचा रहा जो अन्य दिल्ली सल्तनत के सुल्तान नहीं बच पाए थे।
डाo एo एलo श्रीवास्तव के अनुसार—
कुतुबुद्दीन ऐबक ने अल्डोज पर परभुत्य स्थापित करने के पर्येतानो का सफलतापूर्वक प्रतिरोध किया और उसने कभी भी दिल्ली सल्तनत को मध्य एशिया की राजनीति में फंसने नहीं दिया।



बंगाल के खुजलीयों का दमन



एक तरफ जहां दिल्ली में गुलाम वंश पनप रहा था,  वही खुजलीयों का वंश भी बंगाल में पनप रहा था । बख्तियार खिलजी की मृत्यु के बाद अली मर्दन खान नामक सरदार बंगाल का शासक बना । बख्तियार किचली बंगाल का शासक था, परंतु खुजली सरदार अली मरदान खां  को पसंद नहीं थे। साथानियो खिजली  सरदारों ने अली मरदान खां को पड़कर कारागार में डाल दिया, और उसके स्थान पर मोहम्मद शेरा को बंगाल की गद्दी पर बिठा दिया । अली मर्दन का किसी प्रकार कैद से भाग निकला और सीधा दिल्ली सल्तनत में Qutubuddin Aibak के पास पहुंचा । दिल्ली पहुंचकर उसने कुतुबुद्दीन ऐबक से बंगाल के मामले में हस्तचेप करने का अनुरोध किया।

Qutubuddin Aibak ने इस अवसर का पूरा-पूरा लाभ उठाया और उसने बंगाल की राजनीति में भाग लिया। कुतुबुद्दीन ऐबक ने अली मर्दन खान को सहायता प्रदान की,और बदले में अली मर्दन खाने Qutubuddin Aibak की अधीनता को स्वीकार कर लिया, और उसे वार्षिक कर देना भी स्वीकार कर लिया । ऐबक इसी के साथ ही बंगाल के खुजलीयों की यह समस्या भी खत्म हो गई । यही एक वजह है के दिल्ली सल्तनत प्रसिद्ध क्यों है यह इसका एक कारण है कुतुबुद्दीन ऐबक की समझदारी ।



राजपूत मराठों राज्यों के प्रति नीति



मोहम्मद गोरी ने राजपूतों के कई प्रांत को जीतकर गोरी के दिल्ली सल्तनत में शामिल कर दिया था जिन में अजमेर के चौहान, कन्नौज के राजपुत, अन्हिलवाड़ (गुजरात), मेरठ, फर्रुखाबाद,  जैसे राजपुतों के राज्य शामिल थे ।
मोहम्मद गौरी की मृत्यु के बाद यह सभी राजपूतों के राज्य स्वतंत्र हो गए थे । दिल्ली सल्तनत के प्रभुत्व को बचाने का जिम्मा अब गुलाम वंश कौन है वंश का था । दुनिया को भी पता लगा था कि गुलाम वंश कौन है।  Qutubuddin Aibak ने पहले आलथोज और कुबचा की समस्या को हल किया, उसके साथ ही उसने मध्य एशिया की राजनीति की समस्या को भी हल कर दिया था ।

बंगाल की राजनीति में खुजलीयों की प्रभु सत्ता को खत्म करने के बाद अब बारी थी राजपूतों की । कुतुबुद्दीन ऐबक ने सबसे पहले दोआब के राजाओं पर दबाव डाला तथा बदायूं पर पुनः अधिकार कर लिया । Qutubuddin Aibak ने यहां पर अपने सबसे भरोसेमंद और विश्वास परस्त गुलाम को यहां का सूबेदार बनाया ईसी वजह से इसे गुलाम वंश कौन है कहा जाता है ।

कुतुबुद्दीन ऐबक ने फिर एक-एक करके अजमेर, अन्हिलवाड़, कालिंजर और कन्नौज पर युद्ध करके अपना अधिकार कर लिया । और यह अधिकार उनकी मृत्यु तक रहा था।



Qutubuddin Aibak कुतुबुद्दीन ऐबक की मृत्यु

Qutubuddin Aibak

Qutubuddin Aibak को अधिक दिनों तक शासन करने का अवसर नहीं मिला वह केवल चार वर्षो तक ही दिल्ली पर शासन कर सका था 1210 ईस्वी में लाहौर में चौगान (पोल) खेलते समय घोड़े से गिर गए, जिसके कारण उसके सिर में चोट लगी और वह मृत्यु को प्राप्त हो गया । इस प्रकार कुतुबुद्दीन ऐबक को दिल्ली सल्तनत का शासक बनकर सेवा करने का बहुत ही कम समय मिला। गुलाम वंश कौन है इसका सही उत्तर यही है.

कुतबुद्दीन ऐबक ऐक गुलाम था मोहम्मद गौरी का , उसके बाद इल्तुतमिश भी Qutubuddin Aibak का गुलाम था। तीसरा बड़ा राजा बलबन भी इल्तुतमिश का गुलाम था। इसी वजह से इसे गुलाम वंश कहा जाता है

 

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