आज के डिजिटल युग में सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म सिर्फ़ संवाद और मनोरंजन का साधन नहीं रहे, बल्कि ये सूचना के प्रवाह, विचारों की अभिव्यक्ति और ज्ञान के प्रसार का एक अहम हिस्सा बन गए हैं। लेकिन जब यही प्लेटफ़ॉर्म तय करने लगते हैं कि कौन-सी सामग्री “उपयुक्त” है और कौन-सी “अनुचित”, तब एक बड़ा सवाल उठता है — क्या यह आवश्यक सुरक्षा है या अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर अंकुश? हाल के वर्षों में फेसबुक सेंसरशिप इसी बहस का केंद्र बन गई है।
प्राचीन छवियों पर आधुनिक रोक
पेपिरस प्राचीन मिस्र के पुरुषों को दिखाते हुए खतना के दौर से गुजर रहे हैं। (Archivohistoria/CC द्वारा 4.0)
हाल ही में एक ऐतिहासिक और शोध-आधारित वेबसाइट को फेसबुक ने बार-बार ब्लॉक कर दिया। वजह? ऐसे चित्र, जो हजारों साल पुराने मिस्री पपीरस पर बने हैं, और जिनमें उस समय की सामाजिक या धार्मिक प्रक्रियाओं को दिखाया गया है। इनमें एक मिस्री पपीरस पर खतना की प्रक्रिया दर्शाई गई थी — जिसे फेसबुक ने अपनी “नग्नता या यौन गतिविधि” से जुड़ी नीतियों के खिलाफ माना।
विडंबना यह है कि ये चित्र किसी तरह की अश्लीलता के लिए नहीं, बल्कि इतिहास को समझाने और शिक्षा के उद्देश्य से साझा किए गए थे। लेकिन फेसबुक के ऑटोमेटेड सेंसरशिप सिस्टम ने उन्हें ब्लॉक कर दिया, और अपील करने के बाद भी निर्णय में कोई बदलाव नहीं आया। इससे सवाल खड़ा हुआ — क्या ऐतिहासिक और सांस्कृतिक सामग्री भी आज के एल्गोरिद्म के लिए “खतरनाक” बन चुकी है?
हिंसा के चित्र और इतिहास का सच
मामला यहीं खत्म नहीं हुआ। एक और घटना में फेसबुक ने दलदल से मिले एक प्राचीन शरीर (Bog Body) की तस्वीर को “हिंसा और विचलित करने वाली सामग्री” के तहत चिह्नित कर दिया। हालांकि उस चित्र का उद्देश्य इतिहास, पुरातत्व और विज्ञान के अध्ययन को प्रस्तुत करना था। ऐसे उदाहरण दिखाते हैं कि फेसबुक सेंसरशिप सिर्फ़ आधुनिक राजनीति या विवादित मुद्दों तक सीमित नहीं, बल्कि यह अतीत की झलक दिखाने वाले तथ्यों तक पहुँचने में भी बाधा बन सकती है।
सेंसरशिप के पीछे का तर्क
फेसबुक का कहना है कि उनके सामुदायिक नियम उपयोगकर्ताओं को अश्लील, हिंसक या हानिकारक सामग्री से बचाने के लिए बनाए गए हैं। प्लेटफ़ॉर्म पर रोज़ाना अरबों पोस्ट अपलोड होती हैं, जिन्हें मैन्युअल रूप से चेक करना संभव नहीं है। इसलिए एआई और एल्गोरिद्म के जरिए सामग्री की जांच की जाती है। लेकिन यही ऑटोमेटेड सिस्टम अक्सर संदर्भ को नहीं समझ पाते — और नतीजतन इतिहास, कला, या शिक्षा संबंधी सामग्री भी ब्लॉक हो जाती है।
स्वतंत्र अभिव्यक्ति बनाम डिजिटल कंट्रोल
दूसरी तरफ़, कई विशेषज्ञ मानते हैं कि जब एक निजी कंपनी यह तय करती है कि लोगों को क्या देखना चाहिए और क्या नहीं, तो यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर गंभीर असर डाल सकता है। लोकतांत्रिक समाज में सूचना तक खुली पहुंच एक बुनियादी अधिकार है, लेकिन डिजिटल युग में यह अधिकार कंपनियों की नीतियों और एल्गोरिद्म की व्याख्या पर निर्भर हो गया है।
अपील के बाद भी (जहां कोई अनुमान लगाएगा कि एक मानव शामिल हो सकता है) यह छवि फेसबुक समुदाय की नग्नता या यौन गतिविधि नियमों को पारित नहीं करती है:
समाधान की दिशा
इस विवाद का हल संतुलन में है। ऐतिहासिक, वैज्ञानिक और शैक्षिक सामग्री के लिए अलग मानक बनाए जाएं, ताकि संदर्भ को ध्यान में रखकर निर्णय लिया जा सके। अपील प्रक्रिया में वास्तविक मानव समीक्षा को प्राथमिकता दी जाए, ताकि एआई की गलतियों को सुधारा जा सके। साथ ही, कंटेंट क्रिएटर्स को स्पष्ट दिशा-निर्देश दिए जाएं, ताकि वे सामग्री प्रस्तुत करते समय अनावश्यक ब्लॉक से बच सकें।
निष्कर्ष
फेसबुक सेंसरशिप सिर्फ़ एक प्लेटफ़ॉर्म का मामला नहीं, बल्कि यह इस बात का संकेत है कि आने वाले समय में ऑनलाइन अभिव्यक्ति कितनी स्वतंत्र होगी। प्राचीन इतिहास, कला और संस्कृति की सच्ची तस्वीर पेश करने के लिए ज़रूरी है कि सोशल मीडिया कंपनियां अपने नियमों में लचीलापन और संदर्भ को समझने की क्षमता विकसित करें। अन्यथा, हम धीरे-धीरे एक ऐसे दौर में प्रवेश करेंगे, जहां डिजिटल दुनिया में सच को भी सेंसर की परतों के पीछे छिपा दिया जाएगा।