पोलिलुर की लड़ाई, जिसे पेरामबकम की लड़ाई (Battle of Perambakam) भी कहा जाता है, दूसरे एंग्लो-मैसूर युद्ध (1780–1784) की सबसे महत्वपूर्ण घटनाओं में से एक थी। यह ऐतिहासिक युद्ध 10 सितंबर 1780 को वर्तमान तमिलनाडु के कांचीपुरम के पास पुलालुर (Polilur) क्षेत्र में लड़ा गया था। इस लड़ाई में मैसूर के शक्तिशाली शासक हैदर अली और उनके साहसी पुत्र टीपू सुल्तान ने अंग्रेजों यानी ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की सेना को करारी शिकस्त दी थी।
एंग्लो-मैसूर युद्ध न केवल मैसूर और अंग्रेजों के बीच टकराव का परिणाम थी, बल्कि South India में सत्ता संतुलन की दिशा को भी प्रभावित करने वाली साबित हुई। दरअसल, अंग्रेज लगातार अपनी सत्ता और व्यापारिक वर्चस्व को दक्षिण भारत में मजबूत करना चाहते थे, जबकि हैदर अली और टीपू सुल्तान जैसे शासक उन्हें चुनौती देकर अपने साम्राज्य और स्वतंत्रता की रक्षा कर रहे थे।
पोलिलुर की लड़ाई को मध्यकालीन भारत के इतिहास में एक अहम पड़ाव माना जाता है क्योंकि इसने ब्रिटिश सेना की “अजेयता” की धारणा को तोड़ दिया था। कहा जाता है कि एंग्लो-मैसूर युद्ध में हैदर अली की सेना ने आधुनिक तोपखाने और घेराबंदी तकनीक का बेहतरीन उपयोग किया, जिससे ब्रिटिश फौज बुरी तरह पराजित हुई। अंग्रेजों की लगभग पूरी टुकड़ी या तो मारी गई या बंदी बना ली गई।
यह विजय न केवल मैसूर के मनोबल को बढ़ाने वाली थी, बल्कि इसने दक्षिण भारत की राजनीति पर भी गहरा असर डाला। इसके बाद अंग्रेजों को समझ आ गया कि हैदर अली और टीपू सुल्तान जैसे शासक आसानी से परास्त नहीं किए जा सकते। यही कारण है कि एंग्लो-मैसूर युद्ध लंबे समय तक चला और भारतीय प्रतिरोध का एक गौरवशाली उदाहरण बन गया।
युद्ध की पृष्ठभूमि
ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी 18वीं शताब्दी में लगातार अपने दक्षिण भारत (South India) के साम्राज्य को विस्तार देने की कोशिश कर रही थी। कंपनी का मुख्य उद्देश्य व्यापारिक ठिकानों की रक्षा करना और स्थानीय शासकों पर नियंत्रण स्थापित करना था। लेकिन इस विस्तारवाद का सबसे बड़ा विरोध मैसूर के शासक हैदर अली और बाद में उनके पुत्र टीपू सुल्तान ने किया। यही कारण था कि एंग्लो-मैसूर युद्ध बार-बार छिड़े और अंग्रेजों के लिए एक बड़ी चुनौती बन गए।
हैदर अली न केवल एक कुशल सेनापति थे, बल्कि उन्होंने फ्रांसीसी तकनीक और सैनिकों की मदद से अपनी सेना को आधुनिक बनाने का प्रयास भी किया। उनकी तोपखाने की शक्ति और घुड़सवार सेना तेज़ गति से आक्रमण करने के लिए प्रसिद्ध थी। उनके युद्ध कौशल की एक विशेषता यह थी कि वे दुश्मन की रणनीतियों को भांपकर अचानक आक्रमण करते थे, जिससे ब्रिटिश सेना कई बार असमंजस में पड़ जाती थी।
जुलाई 1780 में, हैदर अली ने अपनी विशाल सेना के साथ कर्नाटक क्षेत्र पर धावा बोल दिया। अंग्रेजों ने उनकी सेना की तुलना समुद्री लहरों से की थी, जो लगातार बढ़ती चली जाती हैं और सामने आने वाली हर बाधा को बहा ले जाती हैं। इस अभियान में उन्होंने कई छोटे-बड़े नगरों को तहस-नहस कर दिया और तेजी से मद्रास (चेन्नई) की ओर बढ़े।
मद्रास के आसपास तबाही मचाने के बाद हैदर अली की नजर आर्कोट पर गई। यह क्षेत्र कर्नाटक के नवाब मुहम्मद अली खान वॉलजाह के अधीन था, जो अंग्रेजों का घनिष्ठ सहयोगी था। हैदर अली समझते थे कि यदि आर्कोट पर कब्जा कर लिया जाए तो न केवल अंग्रेजों की सैन्य शक्ति कमजोर होगी, बल्कि दक्षिण भारत में उनका राजनीतिक प्रभाव भी कम हो जाएगा। यही रणनीति आगे चलकर पोलिलुर की ऐतिहासिक लड़ाई का कारण बनी, जिसने दूसरे एंग्लो-मैसूर युद्ध की दिशा तय की।
ब्रिटिश सेना की तैयारियाँ
हैदर अली की तेज़ी से बढ़ती हुई सैन्य गतिविधियों और उनके द्वारा कर्नाटक पर किए गए आक्रमण ने अंग्रेजों की चिंता बढ़ा दी थी। दूसरे एंग्लो-मैसूर युद्ध के इस शुरुआती चरण में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने तुरंत अपनी सैन्य तैयारियाँ तेज कर दीं। मद्रास (वर्तमान चेन्नई) में 5000 से अधिक सैनिकों को इकट्ठा किया गया। इन सैनिकों में यूरोपीय अफसरों के नेतृत्व में अंग्रेजी फौज और बड़ी संख्या में भारतीय सिपाही (सिपाहियों की टुकड़ियाँ) शामिल थीं।
उस समय मद्रास सेना के कमांडर-इन-चीफ मेजर जनरल सर हेक्टर मुनरो थे। उन्होंने हैदर अली की प्रगति को रोकने के लिए कांचीपुरम को अपनी सेना की एकाग्रता का मुख्य केंद्र बनाया और स्वयं मोर्चा संभाला। मुनरो का मानना था कि कांचीपुरम की स्थिति रणनीतिक दृष्टि से सबसे सुरक्षित है, क्योंकि यह न केवल मद्रास की ओर जाने वाले रास्ते की रक्षा करता था बल्कि आसपास के नगरों से संपर्क बनाए रखने में भी सहायक था।
दूसरी ओर, कर्नल विलियम बैली को आदेश दिया गया कि वह गुंटूर से कांचीपुरम की ओर तेजी से कूच करें और मुनरो की सेना से आ मिलें। इस प्रकार अंग्रेजों ने दो अलग-अलग मोर्चों से अपनी सेना को केंद्रित करने की योजना बनाई।
26 अगस्त 1780 को, मुनरो ने अपने अधिकारियों और सैनिकों के साथ मद्रास से प्रस्थान किया और 29 अगस्त को कांचीपुरम पहुँचकर अपना शिविर स्थापित कर लिया। उन्होंने वहां के प्रसिद्ध ग्रेट पगोडा (मंदिर) के आसपास अपने शिविर की मजबूत व्यवस्था की। मंदिर की विशाल दीवारों को उन्होंने रक्षात्मक ढाल के रूप में उपयोग किया। इसके अलावा, मुनरो ने भारी तोपों को मंदिर के चारों ओर तैनात किया और अपने सैनिकों के लिए पर्याप्त मात्रा में चावल और खाद्यान्न भंडार जमा कर लिया, ताकि लंबे समय तक घेराबंदी या युद्ध की स्थिति में सेना की आपूर्ति बनी रहे।
इन तैयारियों से स्पष्ट था कि अंग्रेज इस बार मैसूर की सेना को सीधे युद्ध में चुनौती देने के लिए तैयार हो चुके थे। लेकिन आने वाले दिनों में घटनाएँ उनकी उम्मीदों से बिल्कुल अलग दिशा में बढ़ने वाली थीं।
युद्ध की शुरुआत
5 सितंबर 1780
जब हैदर अली को यह समाचार मिला कि कर्नल विलियम बैली अपनी सेना के साथ गुंटूर से कांचीपुरम की ओर कूच कर रहे हैं, तो उन्होंने तुरंत रणनीतिक कदम उठाया। हैदर अली जानते थे कि यदि बैली सफलतापूर्वक मुनरो से जा मिलते हैं, तो ब्रिटिश सेना की शक्ति दोगुनी हो जाएगी और उन्हें रोक पाना कठिन होगा। इसीलिए उन्होंने अपने पुत्र टीपू सुल्तान और सेनापति असदर अली बेग के नेतृत्व में लगभग 5000 घुड़सवारों को भेजा ताकि बैली की प्रगति को रोका जा सके और उनकी सेना को अकेले में पराजित किया जा सके।
उसी शाम, बैली अपनी टुकड़ी के साथ पेरामबकम गांव पहुँचे। वहाँ उन्होंने एक अस्थायी शिविर बनाया और अगले दिन की योजना तैयार की। बैली को यह विश्वास था कि उनकी यूरोपीय अनुशासन वाली सेना स्थानीय शासकों की सेनाओं का आसानी से मुकाबला कर लेगी। लेकिन वे नहीं जानते थे कि इस बार उनका सामना साधारण भारतीय सेना से नहीं, बल्कि हैदर अली और टीपू सुल्तान की रणनीति से लैस एक संगठित और आधुनिक सेना से होने वाला था।
6 सितंबर 1780
सुबह होते ही टीपू सुल्तान ने बैली की सेना पर तेज़ आक्रमण कर दिया। इस भीषण टकराव की शुरुआत सुबह 11 बजे हुई और यह दोपहर 2 बजे तक चली। टीपू सुल्तान की घुड़सवार सेना ने ब्रिटिश पंक्तियों पर लगातार दबाव बनाया। उनकी तोपें और रॉकेट दागने की रणनीति ने अंग्रेजों को अचंभित कर दिया।
शुरुआती बढ़त के बावजूद, टीपू की सेना को पीछे हटना पड़ा, क्योंकि बैली की टुकड़ी ने यूरोपीय अनुशासन और संगठित तोपखाने का इस्तेमाल करके मोर्चा संभाल लिया। इस लड़ाई में ब्रिटिश सेना को भारी नुकसान हुआ—100 से अधिक सैनिक मारे गए और कई घायल हुए। इससे भी बड़ा संकट यह था कि बैली के पास अब गोला-बारूद और खाद्य सामग्री की भयंकर कमी हो चुकी थी।
इसी बीच, जनरल मुनरो ने बैली से जुड़ने की योजना बनाई। लेकिन हैदर अली ने अद्भुत सैन्य चतुराई दिखाते हुए अपनी सेना को इस प्रकार तैनात कर दिया कि मुनरो और बैली के बीच का संपर्क पूरी तरह कट गया। अब बैली अकेले पड़ गए थे और उन पर चारों ओर से दबाव बढ़ने लगा।
8 सितंबर 1780
लगातार बढ़ते संकट को देखकर बैली को यह एहसास हो गया कि उनकी सेना एक खतरनाक स्थिति में फँस चुकी है। उन्होंने एक संदेश भेजकर मुनरो को सूचित किया कि यदि तुरंत मदद नहीं पहुँची तो उनकी पूरी टुकड़ी का सफाया हो सकता है।
इस संदेश को पाकर मुनरो ने अपने एक भरोसेमंद अधिकारी लेफ्टिनेंट कर्नल फ्लेचर को बुलाया और उन्हें आदेश दिया कि वे लगभग 1000 सैनिकों और पर्याप्त गोला-बारूद के साथ बैली की सहायता के लिए तुरंत निकलें।
लेकिन समस्या यह थी कि हैदर अली के पास गुप्तचर नेटवर्क अत्यंत मज़बूत था। उन्हें अंग्रेजों की हर गतिविधि की जानकारी समय पर मिल जाती थी। जैसे ही मुनरो ने फ्लेचर को रवाना किया, हैदर अली ने तुरंत टीपू सुल्तान को आदेश दिया कि वे बैली को पूरी तरह अलग-थलग कर दें और किसी भी कीमत पर फ्लेचर को उनसे जुड़ने न दें।
फ्लेचर जब अपनी टुकड़ी के साथ आगे बढ़ रहे थे, तो उन्हें यह संदेह हुआ कि उनके गाइड वास्तव में हैदर अली के जासूस हैं और उन्हें गुमराह कर सकते हैं। इसलिए उन्होंने अपनी रणनीति बदली और मुख्य मार्ग छोड़कर धान के खेतों के रास्ते से आगे बढ़ने का निर्णय लिया। उनका उद्देश्य था कि दुश्मन की नज़रों से बचकर किसी तरह बैली तक पहुँचा जाए।
दक्षिण भारत की रणनीतिक स्थिति
इस पूरे घटनाक्रम ने South India की राजनीतिक और सैन्य स्थिति को और अधिक जटिल बना दिया। एक ओर अंग्रेज थे, जो अपनी स्थिति को मज़बूत करने के लिए कर्नाटक के नवाब और स्थानीय राजाओं पर निर्भर थे; दूसरी ओर हैदर अली और टीपू सुल्तान थे, जो अपनी स्वतंत्र सत्ता को अंग्रेजों के बढ़ते साम्राज्यवाद से बचाना चाहते थे। यही संघर्ष दूसरे एंग्लो-मैसूर युद्ध की असली पृष्ठभूमि बना।
यह युद्ध केवल दो सेनाओं के बीच का टकराव नहीं था, बल्कि मध्यकालीन भारत में शक्ति संतुलन का निर्णायक चरण भी था। ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी अपने साम्राज्य का विस्तार चाहती थी, जबकि हैदर अली और टीपू सुल्तान दक्षिण भारत की राजनीतिक स्वायत्तता को बनाए रखने के लिए हर संभव प्रयास कर रहे थे।
एंग्लो-मैसूर युद्ध का महत्व
पोलिलुर की लड़ाई का यह शुरुआती चरण इस बात का संकेत था कि अंग्रेजों के लिए यह युद्ध आसान नहीं होने वाला। बैली की कठिनाई, मुनरो की हिचकिचाहट, और हैदर अली की रणनीतिक चालें मिलकर यह साबित कर रही थीं कि एंग्लो-मैसूर युद्ध अंग्रेजों के लिए अब तक का सबसे बड़ा सैन्य संकट बनने वाला है।
इस लड़ाई ने यह भी सिद्ध किया कि भारतीय शासक यदि संगठित होकर और आधुनिक रणनीतियों का उपयोग करके अंग्रेजों का सामना करें तो उन्हें हराना असंभव नहीं है। यही कारण है कि पोलिलुर की लड़ाई को South India के इतिहास में एक मील का पत्थर माना जाता है। यह केवल एक युद्ध नहीं था, बल्कि वह घटना थी जिसने अंग्रेजों की अजेयता की छवि को गहरा आघात पहुँचाया।
युद्ध का अंतिम चरण:
10 सितंबर 1780 का दिन भारतीय इतिहास और विशेषकर दक्षिण भारत के सैन्य इतिहास में एक निर्णायक मोड़ लेकर आया। यह वह क्षण था जब कर्नल बैली की पूरी ब्रिटिश सेना हैदर अली और उनके सुपुत्र टीपू सुल्तान की रणनीति के सामने धराशायी हो गई। बैली अपनी सेना को लेकर आगे बढ़ रहे थे, लेकिन हैदर अली ने पहले ही अपनी योजना बना ली थी। जैसे ही बैली की टुकड़ी आगे बढ़ी, चारों ओर से मैसूर की सेना ने उन्हें घेर लिया।
इस समय सबसे प्रभावशाली हथियार था मैसूर की प्रसिद्ध रॉकेट आर्टिलरी। लोहे की नोक वाले इन रॉकेटों को बांस की लंबी नलियों से दागा जाता था, जो तेजी से उड़ते हुए दुश्मन की पंक्तियों में घुसते और बड़े पैमाने पर विनाश मचाते। ब्रिटिश सैनिक इन रॉकेटों से भौंचक्के रह गए क्योंकि यह हथियार उनके लिए बिल्कुल नया था। ऐतिहासिक ग्रंथ “A History of Mysore” (लेखक: C. Hayavadana Rao) और कर्नल विल्क्स की “Historical Sketches of the South of India” में विस्तार से बताया गया है कि कैसे इन रॉकेटों ने ब्रिटिश सेना को अराजकता में धकेल दिया।
कर्नल बैली की टुकड़ी में लगभग 3600 सैनिक बचे थे। उनमें यूरोपीय सैनिकों के साथ भारतीय सिपाही भी शामिल थे। लेकिन समस्या यह थी कि उनके पास न तो पर्याप्त गोला-बारूद था और न ही भोजन। लगातार थकी हुई और भूखी सेना रॉकेटों और घुड़सवार आक्रमणों का सामना करने में कमजोर पड़ती जा रही थी। हैदर अली ने अपनी सेना को इस प्रकार विभाजित किया कि कोई भी रास्ता बैली के लिए खुला न रहे। चारों तरफ से घिरे सैनिकों को न आगे बढ़ने का मार्ग था, न पीछे हटने का।
युद्ध की भयानकता का वर्णन “Cambridge History of India” में भी मिलता है, जहाँ बताया गया है कि ब्रिटिश सेना पर इतना दबाव था कि उनकी तोपें बेकार हो गई थीं। गोला-बारूद समाप्त हो जाने के बाद सैनिकों को तलवार और बंदूक की बट से लड़ना पड़ा। प्यास और भूख से बेहाल सिपाही मनोबल खो चुके थे। दूसरी तरफ, टीपू सुल्तान अपनी घुड़सवार सेना के साथ बार-बार धावा बोलते रहे। उनकी युवावस्था की ऊर्जा और जोश से पूरी मैसूर सेना का मनोबल और भी ऊँचा था।
कर्नल बैली ने अपने सैनिकों को साहस दिलाने की कोशिश की, लेकिन हालत इतनी बिगड़ चुकी थी कि अब हार तय थी। ब्रिटिश सेना की पंक्तियाँ एक-एक कर टूटती चली गईं। भारी संख्या में सैनिक मारे गए और जो बचे वे घायल और थके हुए थे। अंततः बैली को घेर लिया गया और उन्हें बंदी बना लिया गया। ऐतिहासिक अभिलेख बताते हैं कि बैली को घोड़े से नीचे गिराकर पकड़ लिया गया और फिर टीपू सुल्तान की निगरानी में कैद कर लिया गया।
इस युद्ध का परिणाम ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के लिए अत्यंत अपमानजनक रहा। यह पहली बार था जब कंपनी की पूरी सेना किसी भारतीय शक्ति के सामने इस तरह पराजित हुई थी। इसे एंग्लो-मैसूर युद्ध का सबसे निर्णायक अध्याय माना जाता है। पोलिलुर की इस लड़ाई ने साबित कर दिया कि अंग्रेज अजेय नहीं हैं और यदि कोई भारतीय शासक रणनीति, तकनीक और आधुनिक हथियारों का उपयोग करे तो उन्हें हराया जा सकता है।
इतिहासकारों का मानना है कि 10 सितंबर 1780 की यह हार अंग्रेजों के लिए “कलकत्ता की काली रात” (1756) के बाद सबसे बड़ी शर्मनाक पराजय थी। इस युद्ध ने हैदर अली और टीपू सुल्तान की प्रतिष्ठा को शिखर पर पहुँचा दिया। ब्रिटिश सेना की हार की गूँज लंदन तक पहुँची और वहाँ संसद में इस घटना पर बहस हुई। यह वही घटना थी जिसने अंग्रेजों को यह सिखाया कि मैसूर जैसे राज्यों से टकराना आसान नहीं है।
पोलिलुर की लड़ाई ने दक्षिण भारत के राजनीतिक परिदृश्य को बदलकर रख दिया। अंग्रेजों को नए सिरे से अपनी रणनीति बनानी पड़ी और उन्होंने आने वाले वर्षों में और अधिक संसाधन झोंक दिए ताकि मैसूर की शक्ति को दबाया जा सके। लेकिन तत्कालीन समय में यह साफ हो गया कि हैदर अली और टीपू सुल्तान भारतीय स्वतंत्रता और स्वाभिमान के सशक्त प्रतीक बन चुके हैं।
आखिरकार, यह लड़ाई केवल एक सैन्य घटना नहीं थी, बल्कि भारतीय इतिहास में प्रतिरोध का ऐसा अध्याय थी जिसने भविष्य के संघर्षों की नींव रखी। यही कारण है कि एंग्लो-मैसूर युद्ध का यह चरण बार-बार उद्धृत किया जाता है और इसे “ब्रिटिश साम्राज्यवाद पर भारतीय शक्ति की ऐतिहासिक विजय” माना जाता है।
इतिहासकार मो. मोइनुद्दीन की पुस्तक “The Battle of Pollilur, 1780” में इस युद्ध के ब्योरे को विस्तार से लिखा गया है, जहाँ वे बताते हैं कि बैली की हार ने ब्रिटिश सेना की मनोवैज्ञानिक स्थिति को गहराई से प्रभावित किया। उस समय अंग्रेजों की सैनिक अनुशासन पर आधारित गर्व की भावना पूरी तरह चकनाचूर हो गई।
10 सितंबर 1780 की यह पराजय भारत में ब्रिटिश साम्राज्य की नींव को हिला देने वाली थी। यह साबित हुआ कि स्थानीय शासक यदि संगठित और दृढ़ संकल्पित हों, तो वे साम्राज्यवादी शक्तियों का मुकाबला कर सकते हैं। इसीलिए यह घटना भारतीय इतिहास में आज भी स्मरणीय है और एंग्लो-मैसूर युद्ध का गौरवपूर्ण अध्याय बनी हुई है।
युद्ध के परिणाम
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पोलिलुर की लड़ाई का परिणाम ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के लिए अत्यंत विनाशकारी रहा। यह उनकी सबसे करारी हारों में से एक थी, जिसने पूरे दक्षिण भारत में अंग्रेजों की ताकत और प्रतिष्ठा को गहरा आघात पहुँचाया। एंग्लो-मैसूर युद्ध हार के बाद यह साफ हो गया कि कंपनी की सेना अजेय नहीं है और भारतीय शासक भी अपनी सूझबूझ, साहस और आधुनिक तकनीक से उन्हें परास्त कर सकते हैं।
इस विजय के साथ ही टीपू सुल्तान की प्रतिष्ठा और शक्ति में अत्यधिक वृद्धि हुई। वे न केवल मैसूर राज्य के लिए बल्कि पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में ब्रिटिश विरोधी संघर्ष का प्रमुख चेहरा बन गए। उनकी वीरता और रणनीतिक कौशल ने उन्हें भारतीय प्रतिरोध का प्रतीक बना दिया। हैदर अली और टीपू की इस सफलता ने यह संदेश दिया कि अंग्रेजों के विस्तार को रोकना संभव है।
मैसूर सेना की सबसे बड़ी उपलब्धि थी उनकी रॉकेट तकनीक। इन रॉकेटों ने ब्रिटिश सेना पर इतना गहरा प्रभाव डाला कि अंग्रेजों ने बाद में इसे अध्ययन करके अपनी सेना में अपनाया। यही कारण है कि आगे चलकर ब्रिटिश आर्मी की रॉकेट कोर का विकास हुआ, जिसका सीधा प्रेरणा स्रोत मैसूर की युद्धक तकनीक थी।
इस जीत ने हैदर अली और टीपू सुल्तान को दक्षिण भारत में और अधिक शक्तिशाली बना दिया। उनका प्रभाव इतना बढ़ गया कि कई छोटे-बड़े राज्य भी अंग्रेजों के खिलाफ मैसूर के साथ खड़े होने लगे। इस प्रकार, पोलिलुर की विजय ने एंग्लो-मैसूर युद्ध के पहले चरण को निर्णायक रूप से मैसूर के पक्ष में मोड़ दिया और अंग्रेजों को नई रणनीतियाँ बनाने पर मजबूर कर दिया।
निष्कर्ष
पोलिलुर की लड़ाई भारतीय इतिहास की एक अत्यंत महत्वपूर्ण घटना थी। एंग्लो-मैसूर युद्ध ने यह स्पष्ट कर दिया कि ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी अजेय नहीं है और भारतीय शासक यदि एकजुट होकर रणनीति अपनाएँ तो औपनिवेशिक ताकतों को कड़ी चुनौती दे सकते हैं। हैदर अली और टीपू सुल्तान की विजय ने दक्षिण भारत में ब्रिटिश वर्चस्व को हिलाकर रख दिया और आने वाले वर्षों में होने वाले संघर्षों की नींव रखी। यह लड़ाई न केवल एक सैन्य उपलब्धि थी बल्कि भारतीय स्वाभिमान और स्वतंत्रता की भावना को भी बल देने वाली घटना थी।
FAQ एंग्लो-मैसूर युद्ध – पोलिलुर की लड़ाई से जुड़े सामान्य प्रश्न
प्रश्न 1: पोलिलुर की लड़ाई कब और कहाँ हुई थी?
उत्तर: यह लड़ाई 10 सितंबर 1780 को वर्तमान तमिलनाडु राज्य में कांचीपुरम के पास पोलिलुर (पुलालुर) नामक स्थान पर लड़ी गई थी।
प्रश्न 2: पोलिलुर की लड़ाई में किसने किसे हराया?
उत्तर: एंग्लो-मैसूर युद्ध में मैसूर के शासक हैदर अली और उनके पुत्र टीपू सुल्तान ने ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की सेना को करारी हार दी।
प्रश्न 3: इस लड़ाई की सबसे बड़ी विशेषता क्या थी?
उत्तर: मैसूर सेना ने रॉकेट आर्टिलरी का प्रयोग किया, जिसने अंग्रेजों पर गहरा प्रभाव डाला और यही तकनीक बाद में ब्रिटिश सेना ने भी अपनाई।
प्रश्न 4: इस युद्ध का भारतीय इतिहास पर क्या प्रभाव पड़ा?
उत्तर: इस विजय से टीपू सुल्तान की प्रतिष्ठा बढ़ी, ब्रिटिश शक्ति को चुनौती मिली और दक्षिण भारत में स्वतंत्रता संग्राम की भावना और मजबूत हुई।
एंग्लो-मैसूर युद्ध: इससे क्या सीखें?
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संगठन और एकता की ताकत: जब शासक और उनकी सेनाएँ संगठित होती हैं तो वे बड़ी से बड़ी ताकत को परास्त कर सकती हैं।
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तकनीक और नवाचार का महत्व: मैसूर की रॉकेट तकनीक ने दिखाया कि आधुनिक हथियार और विज्ञान युद्ध में निर्णायक साबित हो सकते हैं।
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रणनीति और नेतृत्व की भूमिका: हैदर अली और टीपू सुल्तान के नेतृत्व ने साबित किया कि सही दिशा और नेतृत्व से असंभव लगने वाली जीत भी संभव है।
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औपनिवेशिक ताकतों को चुनौती: यह लड़ाई भारतीय शासकों के आत्मविश्वास का प्रतीक थी और भविष्य के स्वतंत्रता संग्राम की प्रेरणा बनी।